January 29, 2008

घरौंदा


मिटटी का घरौंदा
जो बनाया था कभी
तुमने हथेली पर
टूट कर बिखर गया

रेत का मकान
उलझी लकीरों के
गहरे दरारों में
कहीं खो गया

रह गयी तो बस
खुरदरी सी ज़मीन
सपनों के चुभते टुकड़े
रिसते रिश्तों का सूनापन

बंद मुट्ठी में सहेजो
कुछ कल कि यादें
तो कल धुंधला हो जाता है
रेत से छिलती है हथेली

घरौंदे की रेत
हाथों में मलते
बिखरी लकीरों को समेटते
गुज़रती है ज़िंदगी

जब सारे फूल
मुरझा कर टूट जाते हैं
और मिठास भरे पल
कहीं गुम हो जाते हैं
तो याद आते हैं
कुछ गुज़रे दिन के
दिल से फूटे बोल
जब मैंने कहा था-

इक मिटटी का घरौंदा
हथेली पर तुम बनाना
मैं सींचूं बगिया को
फूलों को तुम सजाना

मैं मूरख बावरा
कोई चूक कर जाऊँगा
तुम कान पकड़ना
मैं जग जाऊँगा

जागती आंखों में जब
टूटे घरौंदे की
परछाईं कौंधती है
और बिखरी हुई रेत
को सहेजते
मन भर सा आता है
तब सच कहता हूँ
बड़ा मन होता है
कोई होता जो आता
सारे आंसू पोंछ
कान पकड़
मुझे जगा जाता
....


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